Principle

नारायण गुरु का जन्म दक्षिण केरल के एक साधारण परिवार में 26 अगस्त 1854 में हुआ था। भद्रा देवी के मंदिर के बगल में उनका घर था। एक धार्मिक माहौल उन्हें बचपन में ही मिल गया था। लेकिन एक संत ने उनके घर जन्म ले लिया है, इसका कोई अंदाज उनके माता-पिता को नहीं था। उन्हें नहीं पता था कि उनका बेटा एक दिन अलग तरह के मंदिरों को बनवाएगा। समाज को बदलने में भूमिका निभाएगा।

घर का त्याग करके नानू आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में निकल गए। उन्होंने योग शिक्षा ली, मारूतवमलै की गुफाओंमें साधना की, कठोर अनुशासन का व्रत साधा। व्यक्तित्व के विकास और गुण-सम्पन्नता हेतु कर्म और गति का दौर शुरू हुआ। काफी समय बाद श्री नारायण गुरु लोगों के बीच लौटे। वे गांव-गांव घूमे, जो भोजन मिला, उसे खाया; समाज के अंतिम व्यक्ति के साथ रहे, पिछड़े वर्ग से घुले-मिले। सभी लोग उनसे प्रभावित हुए, उनके प्रति श्रद्धा जगी। समाज कार्य में सबसे पहले श्री नारायण गुरु ने तिरुअनंतपुरम से 20 कि.मी. दक्षिण में आरूविपुरम में नेय्यार नदी के तट पर 1888 में शिव मंदिर की स्थापना की और इस मान्यता को ठुकरा दिया कि केवल एक ब्राह्मण ही पुजारी हो सकता है। हिन्दू मंदिरों में जिनका प्रवेश वर्जित था, वे इस मंदिर में निर्बाध आ सकते थे।

जीवन दर्शन

श्री नारायण गुरु का जीवन दर्शन मुख्यतः तीन भागों में देखा जा सकता है-
1. एक ऐसा भक्त जो संसार के दैनिक झगड़ों से दूर, शांतिप्रद स्थानों पर, जंगलों में, पर्वतों की कन्दराओं में, सुनसान धीमी बहती नदी के तट पर अथवा इसी प्रकार के निर्जन स्थानों पर सत्य को ढूँढ़ता रहता है।
2. जब मनुष्य एक तपस्वी हो जाता है, एक वास्तविक योगी बन जाता है। 'कर्मण्येवाधिकारर्स्ते मा फलेषूकदाचन'-जब वह गीता के इस सूत्र को अपना धर्म मान लेता है।
3. जब वह वास्तविक रूप से कर्म में विश्वास रखते हुए संसार के मोह माया से हटकर एक ज्ञानी बन जाता है। लेकिन उसे समाज की आवश्यकता अथवा समाज की गतिविधि का भी ज्ञान रहता है। यह एक धर्म प्राण बौद्धिक का रूप है।

श्री नारायण गुरु की रचनाओं में मनुष्य के इन तीनों रूपों की झलक है। उनके काव्य में भक्ति भाव की प्रधानता है ही, साथ में मनुष्य की आंतरिक हृदय की दिव्य ज्योति की भी सुगंध है। 'अनुभूमि दशकम''अद्वैत दीपिका' तथा 'स्वानुभूति गीति' में इसी दिव्य ज्योति का आभास मिलता है। 'कुंडलिनी पटटू' नाम की काव्य रचना में पातंजलि ऋषि के योग साधना के छह सोपानों की चर्चा की गई है। उनकी अन्य रचनाएँ हैं- दर्शन माला, आत्मोपदेश शतकम, दैव दशकम, आदि। श्री नारायण गुरु आचार्य शंकर के अद्वैतवाद में विश्वास रखते थे, लेकिन एक अंतर के साथ। आचार्य शंकर ने अद्वैत दर्शन को विश्व में भारत के एक विशेष आध्यात्मिक योगदान के रूप में प्रस्तुत किया। इस प्रकार उन्होंने देश में अपने मत अवलंबियों का एक बौद्धिक वर्ग बना दिया। श्री नारायण गुरु ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया, लेकिन इसे मूलतः दीन, हीन, संत्रस्त, तथा पीड़ित जन साधारण के हित को ध्यान में रख कर।

दिर के ही निकट उन्होंने एक आश्रम बनाया तथा एक संगठन बनाकर मंदिर-संपदा और श्रद्धालुओं के कल्याण की व्यवस्था की। यही संगठन बाद में 'श्री नारायण धर्म परिपालन योगम्' (एस.एन.डी.पी.) के नाम से जाना गया, जो श्री नारायण धर्म का प्रसार करने लगा। 1904 में नारायण गुरु ने क्विलोन (आज कोझीकोड) के एक तटीय उपनगर वर्कला में एक शांत, सुरम्य पर्वतीय स्थल शिवगिरि में अपनी सार्वजनिक गतिविधियां केन्द्रित कीं। 1928 में अपनी महासमाधि तक श्री गुरु ने यहीं रहकर साधना की थी। शिवगिरि में नारायण गुरु ने दो मंदिरों और एक मठ की स्थापना की। शिवगिरि आकर ही रबींद्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी ने श्री नारायण गुरु के दर्शन किए थे।

श्री गुरु ने अलवाय में 1913 में अद्वैत दर्शन के प्रचार-प्रसार के लिए एक अद्वैत आश्रम की स्थापना की। यहां एक संस्कृत विद्यालय स्थापित किया गया। 1920 में त्रिशूर में उनके द्वारा स्थापित कारामुक्कू मंदिर में किसी देवता की प्रतिमा नहीं बल्कि एक दीपक स्थापित किया गया था, जिसका संदेश था- चहुंओर प्रकाश ही प्रकाश हो। 1922 में मुरुक्कुमपुझा में बनाए गए मंदिर में देव प्रतिमा की जगह 'सत्य, धर्म, प्रेम, दया' लिखवाया गया था। 1924 में उनके द्वारा स्थापित अंतिम मंदिर कलवनकोड मंदिर में उन्होंने गर्भ गृह में एक दर्पण लगवाया। सामाजिक प्रगति के लिए श्री नारायण गुरु ने तीन उपाय सुझाए थे- 'संगठन, शिक्षा और औद्योगिक विकास'। आज केरल में दिख रहा सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक विकास का श्रेय श्री नारायण गुरु और उनके द्वारा स्थापित श्री नारायण धर्म परिपालन योगम् संस्था को जाता है।

इन्ही के सिधान्तो पर आज श्री नारायणा गुरु स्वामी एडुकेशनल ट्रस्ट कार्य कर रहा है